|
भाग ४
कठिनाइयां
परिस्थितियां
परिस्थितियां : कारण नहीं परिणाम
यह मानना भ्रान्ति या अन्धविश्वास है कि कोई बाहरी चीज या परिस्थिति किसी भी चीज का कारण हो सकती है । सभी चीजें ओर परिस्थितियां उस परम शक्ति के साथ आने वाले परिणाम होती हैं जो परदे के पीछे से कार्य करती है ।
'शक्ति' क्रिया करती है और प्रत्येक वस्तु अपनी प्रकृति के अनुसार प्रतिक्रिया करती है ।
*
तुम्हें परिणामों को कारण न मान बैठना चाहिये ।
*
भौतिक घटनाओं को जेसी वे दीखती हैं वैसी कभी न मानो । वे सदा किसी और ही चीज को अभिव्यक्त करने का बेढंगा प्रयास होती हैं, ओर वह सच्ची चीज तुम्हारी सतही समझ से बच निकलती हे ।
*
प्रत्यक्ष प्रतिषेधों की परवाह न करो उनके पीछे भी सत्य को पाया जा सकता हे ।
*
परिस्थितियां : पूर्व कर्मों के परिणाम
(किसी ने अपनी उस समय की परिस्थितियों के बारे में सहानुभूति मांगी ।)
मुझे पूरी सहानुभूति है लेकिन मुझे अटल विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्ति का
२३५ अपने जीवन में उन्हीं परिस्थितियों से सामना होता है जिन्हें वह अपने लिए, आन्तरिक या बाह्य रूप से बनाता है । ११ जुलाई, १९३१
*
लोग अपनी नियति के बारे में रोते-धोते रहते हैं और अनुभव करते हैं कि अगर अन्य और चीजें बदल जायें तो उनकी कठिनाईयां और दु:खद प्रतिक्रियाएं दूर हो जायेंगी | क्या आप इस अनुभव के प्रति मेरी शंका से सहमत हैं ?
हर एक अपने-आप अपने दुःखों का शिल्पी होता है । ४ दिसम्बर, १९३१
*
अपने जीवन की परिस्थितियों के बारे में शिकायत करना हमेशा गलत होता है, क्योंकि हम अपने-आपमें जो कुछ हैं, वे उसकी बाहरी अभिव्यक्ति होती हैं । २८ जुलाई, १९५४
*
व्यक्ति के अपने अन्दर ही सारी बाधाएं होती हैं, व्यक्ति के अपने अन्दर ही सारी कठिनाइयां होती हैं, व्यक्ति के अपने अन्दर ही सारा अन्धकार और सारा अज्ञान होता है । १६ नवम्बर, १९५४
'दुर्भावना' वाले लोगों के प्रति
तुमने जो अनिष्ट स्वेच्छा से किया है वह हमेशा तुम्हारे पास किसी-
२३५ न-किसी रूप में वापस आता है । २४ अप्रैल, १९६९
*
हर एक जो चाहे वह करने के लिए स्वतन्त्र है लेकिन वह अपने कर्मों के स्वाभाविक परिणामों को आने से नहीं रोक सकता । केवल वही जो भगवान् के साथ और भगवान् के लिए किया जाता हे, कर्मफल की दासता से मुक्त होता है ।
*
एक 'परम भगवत्ता' हमारे सभी कर्मों की साक्षी है और परिणाम का दिन जल्दी ही आयेगा । १ मार्च, १९७१
*
हर एक अपने ऊपर अपने कर्मों के परिणामों को लाता है । ३ मार्च, १९७१
*
तुमने अपने पत्र के अन्तिम पृष्ठ पर जो कहा है उसके बारे में : चीजें ठीक वैसी नहीं हैं जैसी तुम सोचते हो । पिछले कुछ वर्षों से मुझे इस विषय पर बहुत कुछ कहना पड़ा है । लेकिन उसका क्या फायदा ? कुछ पानी ऐसे होते हैं जिन्हें हिलाये बिना ऐसे ही छोड़ देना ज्यादा अच्छा होता है । बहरहाल, मैं चाहती हूं कि तुम यह कभी न भूलो : हर एक को जीवन में जो कुछ मिलता है वह हमेशा उसी के अनुकूल होता है जो वह है, उस तरह नहीं जैसे अज्ञानी मानवीय न्याय समझता है, बल्कि उस नियम के अनुसार जो अधिक सूक्ष्म, अधिक गहन, अधिक सच होता है । हम यह कभी न भूलें कि परम 'प्रभु' सभी चीजों के पीछे हैं और 'वे' ही हमारे प्रारब्ध के स्वामी हैं ।
२३७ |